Sunday, March 27, 2011

समाज का गणित

                  समाज  का  गणित 

आज की दुनियाँ में मानव जाति की सोच व्यक्तिगत स्वार्थ का यर्थाथ चित्रण है  क्योंकि आज का मानव सबसे पहले जिस देश में पैदा होता है वह उसी देश के किसी धर्म को अपनाकर धर्मान्धी बनकर जातीयता के मकड़जाल में  फंसकर अपना सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ कर देता है  इन अरबों लोगों में अधिकतर साधारण तो कोई वैज्ञानिक, इंजिनियर, डॉक्टर, राजनेता, वकील, व्यवसायी , साधू-सन्यासी तो कोई गुंडा बदमाश  धन ऐश्वर्य पाने के लिए अपने-अपने रोजगार धंधे के द्वारा  धर्म और जात के लिए अपना सारा जीवन दांव पर लगा देते हैं  इनमे से कुछ लोग ही जीवन के यर्थाथ को जानने की कोशिश करते हैं  लेकिन उनकी सोच भी धर्म ,काम ,अर्थ और मोक्ष पाने तक पहुँच पाती है 

हम सब पढ़-लिखकर बस पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए धर्म जाति को समर्पित हो जाते है  हमें सोचना चाहिए कि सभी जीवों में क्या क्या समानता है सभी जीवों को जीने के लिए हाथ नाक कान आँख मुहं  परमात्मा ने दिए है केवल बनावट, आकार और जलवायु के कारण अलग अलग है लेकिन इन सभी जीवों का अपना अपना एक समाज है मानव जाति का भी अपना समाज तो है लेकिन समान नहीं बल्कि असमान है 

समाज का तात्पर्य है सम+आज  अर्थात समाज में आजतक सब बराबर लेकिन मानव  लिंग ,जाति और देश-धर्म का भेद करके, शिक्षा ज्ञान और  धन वैभव को आधार बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ कहलाने महत्वकांग्क्षा में जीकर जीवन के सुख का अनुभव करता है जबकि यह सुख तो   लौकिक है  अलौकिक सुख केवल परमात्म उद्देश्य मानवता और जीवकल्याण भावना में ही निहित है 

मनुष्य परमात्मा की केवलमात्र सर्वश्रेष्ठ कृति है जो मानवता और जीवकल्याण के लिए ही जन्मा है ताकि मानव परमात्मा के उद्देश्य की पूर्ति कर सके और परमात्मा की सानिद्ध्य सुख का भागी बने  इसलिए मानव को समाज के गणित का सही आंकलन करना आना चाहिए