वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है
हममे से हर एक को , इक रोज जाना है
कर जाये कुछ ऐसा , जहां में ऐ दोस्तों !
पत्थर की इक लकीर से , सारा जमाना है
हसरत जहां से है ,तुम सबको दोस्तों
हसरत तो जहां को भी है तुमसे ऐ दोस्तों
सूरज की इक किरण से जग को जगमगाना है
वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है
हममे से हर एक को , इक रोज जाना है
फूल खिलते है जहां में , मिलते है हर जगह
कोई नाजनीन के गजरे में,कोई चढ़े दरगाह
हो तुम फूल बागवां के जिसे गुलशन महकाना है
वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है
हममे से हर एक को , इक रोज जाना है
इंसानियत मिट जाये , कहीं लुट जाये न 'चमन'
मकाँ का तार-ऐ-नफस, कहीं टूट न जाये 'अमन'
मिटा के नफरत इस जहां से ,नया जहां बसाना है
वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है
हममे से हर एक को , इक रोज जाना है
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