Saturday, November 6, 2010

मकसद


वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है 
हममे से  हर एक  को , इक  रोज  जाना है 
कर जाये  कुछ ऐसा , जहां में  ऐ  दोस्तों !
पत्थर की इक लकीर से , सारा जमाना है 

हसरत  जहां  से  है  ,तुम  सबको  दोस्तों 
हसरत तो जहां को भी है तुमसे ऐ दोस्तों 
सूरज की इक किरण से जग को जगमगाना है 
वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है 
हममे से  हर एक  को , इक  रोज  जाना है 

फूल खिलते है जहां में , मिलते है हर जगह 
कोई नाजनीन के गजरे में,कोई चढ़े दरगाह 
हो तुम फूल बागवां के जिसे गुलशन महकाना है
वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है 
हममे से  हर एक  को , इक  रोज  जाना है 

इंसानियत मिट जाये , कहीं लुट जाये न 'चमन' 
मकाँ का तार-ऐ-नफस, कहीं टूट न जाये 'अमन'
मिटा के नफरत इस जहां से ,नया जहां बसाना है 
वैसे तो ये दुनिया , इक मुसाफिर खाना है 
हममे से  हर एक  को , इक  रोज  जाना है 



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